कांग्रेस और बीजेपी की राजनितिक सोच भारत के लिए सबसे बड़ा दुर्भाग्य ...
इस से बड़ा दुर्भाग्य इस देश के लिए क्या होगा कि आजकल भारत की दो महान राजनैतिक शक्तियां बीजेपी और कांग्रेस एक दूसरे को चुनावी जंग में विचारों और नीतियों से हराने की बजाय हज़ारों करोड़ो के विज्ञापनों से चित करने की हौड़ में जी जान से जुटी हैं. चुनावी माहौल में हमारे देश की छोटी प्रांतीय पार्टियां भी इस में पीछे नहीं हैं. अगर यही हज़ारों करोड़ देश की जनता पे खर्च किये होते तो इन्हें अपनी अपनी बदहाली छुपाने और इमेज बनाने, चमकाने के लिए क्या इस तरह विज्ञापनों पर बर्बाद करने पड़ते ? ज़रा सोचिये इन हज़ारों करोड़ों से अपने देश के कितने गॉवों और गॉव वालों की किस्मत बदल सकती थी? इस और इनका कभी ध्यान नहीं जायेगा.
सियासत की इस व्यापक जंग में दोनों बड़ी पार्टियां अपने अपने स्वार्थ हासिल करने के लिए विज्ञापनों में ज़्यादा से ज़्यादा खर्च कर लोगों को प्रभावित करके सत्ता के शीर्ष आसन तक सबसे पहले पहुँचने के लिए उतारूँ हैं.
अगर हम इन दोनों पार्टियों के विज्ञापनों पर गौर करें तो हमें पढ़कर दुःख और शर्म की ही अनुभूति होगी कि यह सोच है हमारे नेताओं की जिनके हाथों में देश है या जिनके हाथों में जाने वाला है, इनके विज्ञापनों में लिखा है "अबकी बार मोदी सरकार' एव 'कांग्रेस आये इस बार " किसी ने आम आदमी पार्टी की तरह सोचने की कोशिश तक नहीं की, जिसके पोस्टर्स पर लिखा है 'आम आदमी की सरकार'
देश के धनाढ़य व्यवसायी मुकेश अम्बानी के बोल आप सुन ही चुके होंगे कि "कांग्रेस और बीजेपी दोनों मेरी दुकानें हैं" कांग्रेस तो देश के तेल को अम्बानी के हाथों बेच ही चुकी है. बीजेपी आ गयी तो वही दोहरायेगी.
सभी केवल अपनी अपनी पार्टियों को महत्व दे रहें हैं. जनता की सुध लेना ही नहीं चाहते. देश में कांग्रेस आये या बीजेपी पाठकों, इन दोनों में से किसी की भी सरकार बने, बनेगी "अम्बानी की ही सरकार " क्योंकि दोनों ही उसकी जेब में हैं. हज़ारों करोड़ जो विज्ञापनों में लग रहे हैं, कहीं से तो आये होंगे? कोई भी समझदार अनुमान लगा सकता है. जब प्रचारों के दौरान राजनितिक पार्टियों को हज़ारों करोड़ दिए जाते हैं तो लाखो करोड़ों जनता से ही वसूले जाते हैं .
अब हमें तय करना है, "देश को बचाना है या बेचना है"
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