नरेंद्र मोदी का नया रूप
चुनाव के दौरान कठोरता vs. चुनाव के बाद कोमलता
किसी नेता के ह्रदय में संसद के प्रति इंतना मान-सम्मान कोई साधारण घटना नहीं थी। ये वो अदभुत और मार्मिक दृश्य था जिसने केवल प्रशंसकों के मन को ही नहीं बल्कि विरोधियों के दिलो-दिमाग को भी प्रभावित करके उन्हें मंत्रमुग्ध कर लिया होगा। वास्तव में, मैं नरेंद्र मोदी का आंशिक रूप से ही प्रशंसक रहा हूँ पर फिर भी कल प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। हाँ इतना ज़रूर है, अवसर मिलने पर मैंने कभी भी मोदी के भाषण और साक्षात्कार की कभी अवहेलना नहीं की। मैंने हर बार उन्हें इसलिए सुना है कि नए मुद्दे और विषय का उल्लेख भी हो सकता है इसमें। उत्सुकता सदा ही बनी रहती है मन में जैसे मैं अरविन्द केजरीवाल को हमेशा इसलिए सुनता आया हूँ क्योंकि उसके विचारों की सादगी, ईमानदारी और सरलता ने मुझे बेहद प्रभावित किया है।
लाल कृष्ण अडवाणी ने कल संसद के सेंट्रल हॉल में मोदी को संसदीय दाल का नेता चुनते हुए, खुलकर अपने जीवन में पहली बार नरेंद्र मोदी की बेजोड़ प्रशंसा की। प्रशंसा के पुल बांधते ही रहे मानो बीजेपी मोदी के बिना आज तक अधूरी थी, इस प्रचंड बहुमत का श्रेय दिया, उसकी योग्यता के प्रति अपनी और अपनी पार्टी बीजेपी की ओर से अपार कृतज्ञता प्रकट की। क्षमा करें, बीजेपी के भीष्म पितामह अडवाणी के नेतृत्व ने मुझे तो कभी प्रभावित नहीं किया। अपने वक्तव्यों को वापस लेने में कोई जवाब नहीं उनका, चाहे गुजरात का विषय हो या शिवराज चौहान का।
उनके इस नए रूप की भी समग्र भारत में किसी ने कल्पना नहीं की होगी कि जो व्यक्ति एक समय नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा होते ही अपने स्वार्थ को पार्टी के हितों से ऊपर रखते हुए त्याग पत्र सौंप सकता है वो अब उसी व्यक्ति की इतनी प्रशंसा कैसे कर सकता है। इतना हृदय परिवर्तन! उनके मुंह से संसद के समक्ष मोदी की धाराप्रवाह तारीफ सुनने और देखने लायक थी।
फिर नरेंद्र मोदी के सम्बोधन का समय आया। अगर आपने मोदी के अमेठी के भाषण को सुना हो तो आप भी कहेंगे की वो उनका सबसे उत्तेजक और भावुक भाषण था उस दिन तक का और प्रभावित होकर जिस पर मैंने विशेष पोस्ट भी लिखी मगर कल संसद में दिया गया मोदी साहब का आधे घंटे का पहला भावुक भाषण अब तक का सबसे उत्तम और सर्वोत्तम लगा मुझे। अपने शब्दों के कौशल और निपुणता से कल पूरी संसद और देशवासियों को मानो अपने वश में कर लिया हो। यही मोदी की लोकप्रियता का मुख्य बिंदु है। मानो संसद ने किसी धर्म गुरु की सभा का रूप ले लिया हो। सभी तन्मयता और एकाग्रता से ऐसे सुन रहे थे जैसे शिष्य गुरु को मुक्ति मन्त्र के लिए सुन रहे हों।
मोदी के इस ऐतिहासिक भाषण में उनकी आँखों से आंसूं तक छलक आये और उनके कथनों में कई महत्वपूर्ण विषयों और विशेष बिन्दुओं का समावेश था जिसने देशवासियों ने बड़े गौर से सुना जिनमें उनका मूलमंत्र 'सबका साथ सबका विकास' 'मोदी का सदा आशावादी होना' 'बीजेपी पार्टी को माँ का दर्जा देकर उसकी सदा सेवा करना' बीजेपी की इस प्रचंड जीत को अपनी जीत न बताकर उसे बीजेपी की कई पीढ़ियों की मेहनत का परिणाम बताना' 'अपनी सरकार को गरीबों, पिछड़ों, उपेक्षित, शोषित लोगों की सरकार बताना' मोदी के भाषण के दौरान मैंने महसूस किया की संसद में दिए इस पहले भाषण में उन्हें २०१९ का चुनाव साफ़ साफ़ दिखाई दे रहा था।
नरेंद्र मोदी के इस नए बदले हुए रूप को देख और उसके हृदयस्पर्शी शब्दों को सुनकर मैं भी दूसरों की तरह उतना ही प्रभावित हुआ जितने और सब, मगर विश्वास करने से पहले मेरे मष्तिष्क में कई सवाल बिजली की तरह तेजी से कौंधने लगे जैसे मोदी के माथे से लाल टीके का नदारद होना, मुस्लिम टोपी को पहनने से इंकार करना, लक्ष्य को पाने के लिए हिन्दू राष्ट्रवाद को पीछे धकेल देना, गुजरात की पुलिस तंत्र का एक स्त्री के ऊपर नज़र रखना, अरविन्द जैसे निष्ठावान नायक को एके-४९ और पाकिस्तान का एजेंट बताना, अपनी पत्नी का नाम २०१४ के चुनाव से पहले न लिखना, चुनाव में अदानी के हेलीकाप्टर में घूमना, करोड़ों अरबों रुपयों को गरीबों पर खर्च करने के बजाये चुनाव अभियान में विज्ञापनों में नष्ट कर देना, गुजरात में दंगो के लिए माफ़ी न मांगना, गुजरात में स्थानीय पुलिस का किसानों पर लाठी बरसाना, अदानी को गुजरात में कोड़ियों के भाव ज़मीन देना, बीजेपी में आज भी ३४% दागीयों का संसद में होना वगैरह वगैरह न जाने और कितने ऐसे सवाल हैं जिनके कारण मोदी जी पर इस समय तो भरोसा नहीं किया जा सकता।
वादे तो बड़े बड़े किये मोदी महोदय जी ने अपने भाषण में पर अब देखना शेष है पूंजीपतियों के हितों को आने वाले समय में क़िस तरह रेखांकित किया जायेगा इस सरकार में उनके द्वारा, देश हित और चंद लोगों के हितों में क़िस् तरह अंतर किया जायेगा। मुकेश अम्बानी और कांग्रेस सरकार के बीच हुए गैस के इकरारनामे को देशवासियों के या उसके निजी हितों के दृष्टिकोण से देखा जायेगा। देखना शेष है की मोदी साहब की आँखें गरीबों के पेट और हितों पर कब तक रुकी रहती है या फिर से पहले के बीजेपी शासन की तरह जनता को बेवकूफ बनाया जायेगा।
दुनिया भर में मीडिया को लोकत्रंत्र के चार स्तम्भों में से एक मज़बूत स्तम्भ माना जाता है और भारत में २०१४ के चुनाव को एक ऐतिहासिक चुनाव का दर्जा तो मिल चुका है लेकिन इस चुनाव को मीडिया के नैतिक पतन के लिए भी सदा याद किया जाएगा जिसने खुफिआ षड्यंत्र के तहत स्वच्छ राजनीती के लिए चली देश में जनक्रांति की आंधी को बेरहमी से दमन कर दिया।
मैं मानता हूँ कि जन आंदोलन को किसी भी देश में कुछ समय के लिए दमन किया जा सकता है मगर हमेशा के लिए नहीं।
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