Friday, May 16, 2014

WITH BJP'S LANDSLIDE VICTORY, THE COUNTRY FALLS IN THE SAME OLD RUT...

अप्रत्याशित और अभूतपूर्व विजय ! बीजेपी खेमे में हर्षो-उल्लास का वातावरण ! 
रामलीला मैदान की जनक्रांति, मोदी की लहर के सामने बनी केवल एक भ्रान्ति

MODI PROVED HE IS THE BEST
आम चुनाव के इस महापर्व और महायुद्ध के बाद १६ मई को आज आख़िर जीत हो ही गई बीजेपी की, वो भी पूर्णतया बहुमत के साथ। लेकिन इस जीत के साथ ही फिर से फीकी पड़ गई वो उम्मीद जो इस देश में स्वच्छ राजनीति के साथ एक नया बदलाव देखना चाहती थी। फिर वही सिलसिलेवार कांग्रेस के बाद बीजेपी और उसके बाद कांग्रेस और फिर से बीजेपी। जैसा देश आजतक चलता आया है ठीक वैसा ही चलेगा अगले पांच सालों तक। 

मोदी से थोड़ी बहुत आशा रखी जा सकती है, ज़्यादा नहीं क्योंकि बीजेपी ने १३ सितम्बर,२०१३ को जैसे ही उसके नाम की प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में घोषणा की तो गुजरात में अपनी छवि सुधारने के लिए मोदी ने तीन महीने बाद ही दिसंबर २०१३ को लोकायुक्त की नियुक्ति की घोषणा कर दी, जो पद एक दशक से गुजरात में खाली पड़ा था। उससे बड़ी उम्मीदें रखना इसलिए भी व्यर्थ होगा क्योंकि जो नेता सत्ता के शीर्ष पर होकर भी पिछले १२ सालों में गुजरात को भ्रष्टाचार मुक्त नहीं कर पाया वो इस देश को पांच सालों में क्या मुक्त करेगा। वो केवल देश की उन्नति, तरक़्क़ी और विकास के राग का ही आलाप गायेगा बार बार अपने कार्यकाल में। मोदी की ईमानदारी की झलकियाँ आप मेरी पुरानी पोस्ट में भी पढ़ सकते हैं, इस पोस्ट में दोहराना ठीक नहीं होगा। 

अरविन्द केजरीवाल की जनक्रांति के बाद लगभग सबको विश्वास सा हो चला था कि अब देश की राजनीती पूर्ण रूप से बदलेगी यहाँ। इस तथाकथित महान देश की दिशा बदलेगी। थोड़ा बहुत बदलाव तो दिखने लगा था राजनैतिक पार्टियों के व्यवहार में क्रांति के पश्चात, मगर जिस क्रांतिकारी बदलाव की आशा थी वो न जाने इन नज़रों से कब तक कोसों दूर रहेगा। 
याद करो कांग्रेस ने क्या कहा था कि चाय वाला कभी PM नहीं बन सकता 
आज कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज, चतुर-चालाक नेतागण इस महत्वपूर्ण चुनाव में राजनितिक ज़मीन पर शर्म से नज़रें गड़ाये धराशायी होकर धूल चाट रहे हैं। एक दो को छोड़कर बाकी क्षेत्रीय पार्टियों के गद्दावर नेताओं का भी लगभग वही हश्र हुआ है इस विशेष चुनाव में, जो कांग्रेस के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे। याद कीजिये ये सब वही नेता हैं जो दिल्ली में संसद से सत्ता के अभिमान में चूर आम जनता के साथ अरविन्द और अन्ना पर तीखे तीखे तंज कस रहे थे, प्रहार कर रहे थे, उनकी जायज़ मांगों का अपमान कर रहे थे। कहते हैं न आदमी के कर्म उसका पीछा नहीं छोड़ते, ठीक वही हुआ है आज। इनका ये हश्र तो उसी क्षण तय हो गया था जिस पल उन्होंने दिल्ली में आम आदमी, आम जनता का मज़ाक उड़ाने का दुस्साहस किया था जिसने उन्हें कई बार सत्ता के इस शीर्ष आसन पर बिठाया था। 

दुर्भाग्यवश इस चुनाव में अरविन्द केजरीवाल जैसे ईमानदार महानायक को देशवासियों ने राष्ट्रीय स्तर के चुनाव में वोह साथ नहीं दिया जो उसे दिल्ली के विधानसभा चुनाव में मिला था, मतदाताओं ने उसे वो शक्ति नहीं दी जिसकी आशा अरविन्द को इस चुनाव में थी और थोड़ी बहुत मुझे भी। लग रहा था जैसे पूरा भारत बदलाव चाहता है। शायद भारतवासी इस आम चुनाव में मीडिया के बिछाए जाल और चालों में फंस कर उसकी सच्ची निष्ठां और नियत पर शक कर उसे पहचान नहीं सके, उसे ठीक से परख नहीं पाये। 

चुनाव से पहले, इस महान नेता के चरित्र पर बेरहम मतलबपरस्त मीडिया हर रोज़ एक के बाद एक गोले दाग़ता गया, उसके पाक साफ़ दामन पर दाग़ लगाता गया, उसे ग़ैर जिम्मेदार, भगोड़ा, प्रधानमंत्री पद का लालची बताता गया। अरविन्द को अगर सत्ता का मोह होता तो वो दिल्ली में बैठकर दूसरे भ्रष्ट नेताओं की तरह देश को लूटने में लग जाता जो इस देश की परम्परा रही है, उसे देश की परवाह नहीं होती तो वो अपने बच्चों के ऊपर ली कसम इस देश के बच्चों के लिए नहीं तोड़ता, उसे लोगों को धोखा देना ही होता तो वोह आम आदमी के अधिकारों और हुकूक के लिए कभी भूख हड़ताल पर नहीं बैठता। दिल्ली वालों के अधिकारों की रक्षा के लिए वो मुख्यमंत्री रहते हुए धरने पर नहीं बैठता। जनलोकपाल के विरुद्ध दिल्ली में कांग्रेस और बीजेपी की सांठगांठ और दोस्ती देख अरविन्द ने महसूस कर लिया था कि वो दिल्ली की सत्ता पर बैठ कर दिल्ली वालों के लिए कुछ नहीं कर सकता तो देश कैसे बदल सकता है।  
कितनी अजीब बात है कि दिल्ली का चुनाव जीतने के बाद भी इस देश की कुव्यवस्था और कांग्रेस और बीजेपी के गठजोड़ कारण अरविन्द केजरीवाल असहाय और निरीह सा बन चुका था। सत्ता के शीर्ष आसन पर बैठकर भी वह देश वासियों के सपने पूरे करने में असमर्थ था। उसकी मानसिक पीड़ा केवल वो ही महसूस कर सकता था।  फिर उसने सबकी उम्मीद से परे, अपने देश के लिए वो ऐतिहासिक कदम उठाया जो पहले कही किसी मुख्यमंत्री ने सोचा तक नहीं, उस सत्ता को त्याग देने का निर्णय जिसके भरोसे पर उसने दिल्ली वालों को जनलोकपाल कानून बनाने का भरोसा दिया था। 

लेकिन बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने मिलकर परदे के पीछे की सांठगांठ के चलते दिल्ली के मुख्यमंत्री को शक्तिहीन बना दिया। अरविन्द की नज़रों में दिल्ली की सत्ता का कोई अर्थ नहीं रह गया था जो दिल्ली वालों के काम न आ सकी । दिल्ली में रहकर पुरे देश को बदलना संभव नहीं था तो उसने राष्ट्रिय चुनाव में उतरने की ठानी जो निर्णय इस देश की किसी भी राजनैतिक पार्टियों के गले नहीं उतरा। उसे पद और धन कमाने की लालसा होती तो वो कभी दिल्ली वासियों को दिए जनलोकपाल के वचन के लिए मुख्यमंत्री के पद का बलिदान नहीं करता।

बिना सोचे समझे लोगों ने मीडिया पर विश्वास कर लिया और अरविन्द की क्रांति और बदलाव की आंधी का साथ छोड़कर मोदी की लहर को समर्पित कर दिया। मुझे पूरी आशा है वो दिन अवश्य आएगा जब ये समूचा देश फिर से जागेगा, अरविन्द की देश बदलने की निष्ठां और संकल्प को पहचानेगा और अपनी गलती का अहसास कर उसे दोबारा गले लगाएगा। 

शायद आपको मेरी बात पर विश्वास न हो अगर में ये कहूँ कि नरेंद्र मोदी की इस ऐतिहासिक जीत में अरविन्द केजरीवाल का बहुत बड़ा हाथ है। कांग्रेस के खिलाफ जो देशभर में चुनाव से पहले माहौल बना, उसका असली नायक अरविन्द और उसका जन आंदोलन ही है जिसने भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त जन जन को जागृत कर एकतासूत्र में बांधा और जनक्रांति का सिपाही बनाया। उसकी जीत में काफी योगदान हमारे भारत के बिकाऊ मीडिया का भी है जो इस देश की पूंजीपतियों की अप्रत्यक्ष ताक़तों के इशारे पर दिनरात मोदी मोदी का जाप करने में जुट गया और आम आदमी पार्टी के खिलाफ लोगों के दिलों में ज़हर घोलने में पूर्णरूप से सफल हो गया।  

मैं ये भी मानता हूँ की मोदी की इस भव्य विजय में मोदी की अपने भाषणों और रैलीयों के दौरान लोगों के दिलों में उतरने की कला और उनके साथ अटूट संपर्क कायम रखने की प्रभावी शैली भी है जिसमें अरविन्द आज काफी हद तक पीछे है। अपने इरादों को अमली जामा पहनाने के लिए, इस कला को सीखना और उसमें परिपूर्ण होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना अपने दिल में देश को और देश की सड़ी गली व्यवस्था को बदलने की सच्ची भावना का रखना। बीजेपी की इस ऐतिहासिक विजय में कांग्रेस के नेताओं की एक के बाद एक नाकामियां, सत्ता के नशे में चूर होकर अनर्गल बयानबाज़ी करते हुए मोदी को चाय की दुकान के लिए जगह देना, भ्रष्टाचार, महंगाई और जनसेवा भाव को भूल जाना भी है। अगर आपने मेरी पोस्ट पहले पढी हो तो आप मेरी भविष्यवाणी अवश्य जानते होंगे जिसमें मैने कहा था कि २०१४ के चुनाव के बाद कांग्रेस पार्टी अपना राष्ट्रीय स्तर खो देगी। देश की भलाई के लिए हुआ ठीक वैसा ही। जनता ने कांग्रेस चुनाव में उसे इतना मत भी नहीं दिया जिसके बल पर वो संसद में मुख्य विपक्षी दल बन सके जिसके लिए कम से कम 10% संख्या की आवश्यकता होती है। 

नरेंद्र मोदी के साक्षात्कारों से देशप्रेम, कर्मठता और प्रतिबद्धता की कभी कभी झलक तो दिखाई देती है और उसके अटूट संकल्प पर थोड़ा बहुत विश्वास करने को मन भी करता है पर पूर्ण रूप से नहीं क्योंकि बीजेपी में उसके आस पास बहुत से भ्रष्ट, अवसरवादी और अविश्वश्नीय चेहरों की भीड़ दिखाई देती है जो संदेह पैदा करती है। नरेंद्र मोदी पर तो विश्वास एक बार किया जा भी सकता है पर बीजेपी पर नहीं। 

मैं एक बात दोहराना अवश्य चाहूँगा यहाँ कि मैंने बरसों पहले २०-२५ बीजेपी के नेताओं को लिखकर प्रार्थना की थी कि कांग्रेस को आने वाले चुनाव में मात देने के लिए उन्हें प्रधान मंत्री के प्रत्याशी के रूप में नरेंद्र मोदी के नाम की जल्द से जल्द घोषणा करना चाहिए क्योंकि बीजेपी में वही एक सबसे अधिक लोकप्रिय नेता था जो इस रावणरूपी विराट कांग्रेस का मुकाबला कर सकता था। और ख़ुशी इस बात की थी कि उसे चुना भी गया। मगर आज मुझे अरविन्द और मोदी में से किसी एक को चुनना हो तो मैं बिना हिचकिचाये केवल अरविन्द को ही चुनूंगा। क्योंकि मैं मानता हूँ की कांग्रेस और बीजेपी की सोच, विचारधारा और दृष्टिकोण में बदलाव लाने वाला केवल अरविन्द ही है। 

बीजेपी की इस अतुलनीय विजय का नीचे दिया ब्यौरा और चित्र स्वयं उल्लेख कर रहा है कि नरेंद्र दामोदर राव मोदी की लहर कैसे सुनामी में परिवर्तित होकर पूरे देश को अपने बहाव में ले डूबी।

BJP               283
Congress       43
AIDMK           36
TMC              34
Shiv Sena      19
BJD              20
TDP              16
TRS              12
AAP              
04
मोदीमय भारत 

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